
राजकपूर को यह अवार्ड उन हालातों में मिला जब उनकी चेतना लुप्त हो रही थी। वे महसूस ही नहीं कर पाये की इस शीर्ष पुरूस्कार का अहसास कैसा होता है। दिलीप कुमार की स्मृतियाँ लोप हो गई और वे स्लेट की तरह साफ़ हो गए तब जाकर वे इस सम्मान के योग्य हो पाये। यही हादसा शशिकपुर के साथ हुआ। ये लोग शारीरिक तौर पर इतने अक्षम हो चुके है कि अपने हाथ से एक घूंट पानी भी नहीं पी सकते। कल्पना कीजिये कि अपने करियर के शिखर पर अगर इनकी सुध ली जाती तो उसकी ऊर्जा इन्हे और कितना सर्वश्रेष्ठ देने को प्रेरित करती ? गौर तलब है की अभिनेता सिर्फ लाइमलाइट और दर्शकों की तालियों से ऊर्जा ग्रहण करते है। एक समय बाद पैसा और वैभव उनके लिए गौण हो जाते है।
एक समय बाद नेशनल अवार्ड और फाल्के अवार्ड शायद मनोज कुमार की याद नहीं दिला पाये परन्तु देश भक्ति पर आधारित उनकी फिल्मो के गीत उन्हें ताउम्र अमर रखेंगे। हमारा स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र उनके जोशीले गीतों के बगैर अधूरा है।
एक फिल्मकार के लिए इससे बड़ा अवार्ड और क्या हो सकता है भला !!
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