Wednesday, February 21, 2018

प्रिया प्रकाश का कोलावरी डी बन जाना

बॉलीवुड में आमतौर पर शुक्रवार के दिन कोई सितारा उदय या अस्त होता है। क्योंकि विशेष अवसरों को छोड़कर अधिकांश फिल्मे इसी दिन पहली बार सिनेमाघर का मुँह देखती है। इसी दिन तय हो जाता है कि अमुक सितारा चूक रहा है या लगातार चमकता रहेगा। विगत की तरह निर्माता अब सफलता के लिए केवल दर्शकों के भरोसे नहीं रहता। फिल्म को प्रमोट करने के लिए परदे के पीछे कितने जतन किये जाते है इस तथ्य से औसत दर्शक बेखबर ही रहता है। सोशल मीडिया का चतुराई से दोहन कर फिल्म को किसी प्रोडक्ट की तरह दर्शक के दिमाग में बैठा दिया जाता है। इसमें भी दिलचस्प बात यह कि दर्शक कभी नहीं जान पाता कि उसे फिल्म देखने के लिए मना लिया गया है। प्रमोशन की तकनीक में टाइमिंग का विशेष ध्यान रखा जाता है। सोंची समझी रणनीति के तहत मीडिया के सभी प्लेटफॉर्म से अभियान चलाया जाता है। मलयाली फिल्म ' ओरु अदार लव ' आगामी 18 जून को रिलीज़ हो रही है। परन्तु एन वेलेंटाइन के एक दिन पहले फिल्म की नायिका प्रिया प्रकाश और नायक रोशन अब्दुल रऊफ  का नटखट वीडियो वायरल होना महज इत्तेफाक नहीं है। ओरु अदार लव ' एक किशोर प्रेम कथा है। हमेशा की तरह एक वर्ग विशेष ने फिल्म का विरोध आरम्भ कर दिया है। नतीजन प्रिया प्रकाश गूगल पर सबसे ज्यादा सर्च होने वाली शख्सियत बन गई है। मात्र चोवीस घंटे में उन्होंने बरसों से टॉप सर्च रही सनी लियोन को पीछे छोड़ दिया। 
रातोरात स्टारडम हासिल करने का यह प्रसंग अनूठा नहीं है। गुजरे समय में कई साधारण प्रतिभा के अभिनेता ' इंस्टेंट ' लोकप्रियता के ज्वार पर सवार हो प्रसिद्धि पा चुके है। हिंदी सिनेमा के दर्शक पद्मिनी कोल्हापुरे को भूले नहीं होंगे। ' सत्यम शिवम् सुंदरम ' में जीनत अमान के बचपन की भूमिका कर करियर आरम्भ करने वाली इस अभिनेत्री ने  भारत दौरे पर आये ब्रिटिश युवराज प्रिंस चार्ल्स का चुम्बन लेकर सनसनी फैला दी थी। भावरहित चेहरे और औसत अभिनय के बावजूद पद्मिनी राजकपूर की फिल्म ' प्रेमरोग ' की नायिका बनी। एक साधारण अभिनेत्री के लिए राजकपूर की फिल्म का हिस्सा बनना उपलब्धि से कम नहीं है। इसी तरह साठ  के दशक में  ' जुबली कुमार 'के नाम से प्रसिद्ध एवं सफल राजेंद्र कुमार के आकर्षक पुत्र कुमार गौरव अपनी पहली फिल्म ' लव स्टोरी ' से इस कदर पॉपुलर हुए कि कई जमे जकड़े सितारों के पैरों तले  जमीन खिसक गई। कुमार गौरव की लोकप्रियता का आलम यह था कि हिंदी फिल्मों के लगभग सभी निर्माता उन्हें लेकर फिल्म बनाना चाहते थे। बदकिस्मती से कुमार गौरव में अपने सफल पिता की अभिनय क्षमता का दस फीसदी भी नहीं था। वे कब फ्लॉप हो इंडस्ट्री से बाहर हो गये , उन्हें पता भी नहीं चला।  यही हाल उनकी नायिका विजेयता पंडित का भी हुआ। कुमार गौरव की तरह ' भाग्यश्री ने भी ' मेने प्यार किया ' से धमाकेदार इंट्री ली थी। अस्सी के दशक की अधिकांश फ़िल्मी  पत्रिकाओं ने भाग्यश्री के बारे में भविष्यवाणी की थी कि वे शीर्ष नायिकाओ की लिस्ट में अपना नाम जोड़ लेंगी। अफ़सोस ये हो न सका। सफलता ने भाग्यश्री को ऐसा बौराया कि उन्होंने अपनी हर फिल्म में अपने पति हिमालय को प्रमोट करना शुरू कर दिया। परिणाम - दोनों ही डूब गये। नीली आँखों वाली गौरवर्ण ' मंदाकिनी ' फिल्म  ' राम तेरी गंगा मैली ' में एक विवादास्पद दृश्य कर लोकप्रियता के सातवे आसमान पर जा बैठी थी। राजकपूर की मेहनत और नाम की वजह से मिली सफलता को वे अपना मान बैठी। मंदाकिनी शिखर से जो फिसली तो फिसलती ही चली गई। ' राम तेरी गंगा मैली ' के अलावा मंदाकिनी की  उपलब्धियों में दाऊद इब्राहिम की प्रेमिका बन जाना उल्लेखनीय है। 
चार दिन की चांदनी , फिर अँधेरी रात ' मुहावरे के दायरे में आने वाले सितारों की फेहरिस्त लम्बी है। राहुल रॉय , अनु अग्रवाल ( आशिकी ) ग्रेसी सिंह ( लगान ) भूमिका चावला ( तेरे नाम ) विवेक मुश्रान ( सौदागर ) शेखर सुमन ( उत्सव ) अरमान कोहली (जानी दुश्मन ) जुगल हंसराज ( पापा कहते है ) उदय चोपड़ा ( मोहब्बते ) हरमन बावेजा ( लव स्टोरी 2050 ) आदि इत्यादि। ये सभी लोग किस्मत के धनी इस लिहाज से थे कि इन्हे किसी न किसी बड़े डायरेक्टर या बड़े बैनर ने लांच किया था। 
प्रिया प्रकाश के लिए यह जान लेना जरुरी है कि लोकप्रियता पहचान तो दिला देती है परन्तु गीली मिटटी में पाँव जमाने के लिए  प्रतिभा का अपना योगदान होना जरुरी होता है। ज्यादा समय नहीं हुआ जब तमिल सितारे धनुष का कुछ तो भी गीत ' कोलावरी डी ' वैश्विक स्तर पर धूम मचा रहा था। इस गीत के बाद आज धनुष कहाँ है ? क्या अब भी वे इतने ही पॉपुलर है ? जिस फिल्म का यह गीत था उसका नाम किसी को याद है ? 
आराम से सोंचिये।  कोई जल्दी नहीं है।

Monday, February 12, 2018

वक्त रुकता नहीं कही टिक कर , इसकी आदत भी आदमी सी है

अगर गजल सम्राट जगजीत सिंह आज (8 फरवरी ) जीवित होते तो अपना अठतर वा जन्मदिन मना रहे होते। उनके जाने के सात सालों के समय पर नजर दौड़ाये तो यकीन नहीं होता कि फिल्मों से गजलों का दौर भी उनके साथ ही चला गया है। ऐसा नहीं कि लोगो ने गजल सुनना बंद कर दिया है। गजलों के शौकीन आज भी है और उनके पास बेहतरीन गजलों का खजाना पहले से कही बेहतर स्थिति में है। हिंदी फिल्मों में गजलों का चलन सिनेमा के  आरम्भ से ही रहा है।  समय समय पर गीतों के साथ गजलों का प्रयोग कुन्दनलाल सहगल के जमाने से जारी है।गीतों के साथ गजले लहर की तरह आती जाती रही।  1982 में बी आर चोपड़ा की 'सलमा आगा ,राजबब्बर ' अभिनीत फिल्म ' निकाह ' की गजलों ने पुरे हिन्दुस्तान को सुरूर में डूबा दिया । यह सुरूर ऐसा था जिसने एक पीढ़ी को गजल की रुमानियत से रूबरू  कराया था। बिरले होंगे जिन्होंने उस दौर में ' चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है ' नहीं सुना होगा। ग़ुलाम अली की हिन्दुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक और पाकिस्तानी टोन के ब्लेंड में भीगी आवाज औसत श्रोताओ को पहली बार गजल के संसार में ले गई ।  देश का शायद ही ऐसा कोई घर बचा हो जिसकी चार दीवारी के भीतर उनके कैसेट न बजे हो। ठीक इसी समय जगजीत सिंह अपनी पत्नी चित्रा के साथ अपने शिखर की यात्रा आरम्भ कर रहे थे। ' होठों से छू लो तुम , मेरा गीत अमर कर दो ' (प्रेमगीत ) ये तेरा घर ,ये मेरा घर ( साथ साथ ) लोकप्रियता की पायदान पर छलांगे भर रहे थे। यह वह मुकाम था जहाँ पहले से मौजूद फ़िल्मी गैर फ़िल्मी गजलों को  बड़ा ' एक्सपोज़र ' मिलने वाला था। जगजीत की मखमली आवाज ने गजल को ड्राइंग रूम से निकाल कर वैश्विक मंच दिलाया। होने को ग़ुलाम अली ,बेगम अख्तर ,मेहंदी हसन जैसे चोटी के गजल गायक थे ,नामचीन भी थे , उनका अपना आभा मंडल था। लेकिन जगजीत ने गजलों को उर्दू के कठिन शब्दों से मुक्त कराकर इतना  सरल कर दिया कि वे साधारण संगीत प्रेमी की समझ के  भी दायरे में आगई ।  जगजीत सिंह के जाने के बाद फिल्मों में गजलों का चलन जैसे थम सा गया है। गजले नजर तो आती है परन्तु अखबारों के कोने में। शौकीन अब भी है परन्तु उन्हें अपनी तरंग में  बहा ले जाने वाला शख्स नहीं है। ताज्जुब होता है कि कोई भी स्थापित गायक अब ग़ालिब , मीर ,फैज़ ,इकबाल ,दाग ,दुष्यंत कुमार या निदा फाजली की की अनसुनी गजलों को गाने का साहस क्यों नहीं करता ? 
ओशो के बारे में वरिष्ठ सिने समीक्षक श्री अजात शत्रु  ने टिपण्णी करते हुए लिखा था कि उन्होंने दर्शन और धर्म की क्लिष्ठ बातों को सरल शब्दों में आमजन तक पहुंचा दिया  था । यही बात जगजीत के साथ गजलों के संदर्भ में भी कही जा सकती है। जगजीत ने खुद को तराशा था और उपरवाले ने उन्हें मखमली आवाज की नियामत बख्शी । जगजीत को लगातार सुंनने वाले बता सकते है कि वह सुरमई आवाज आदमी को भीड़ में अकेला कर देती है। एक साथ रूहानी ,रूमानी अनुभव महसूस करना है तो जगजीत को सुनते रहना जरुरी है .. खुद उन्होंने अपनी एक गजल में कहा था ' वक्त रुकता नहीं कही टिक कर , इसकी आदत भी आदमी सी है ....

Monday, February 5, 2018

77 बरस पुरानी एक ताज़ी फिल्म

रोजमर्रा के जीवन में मीडिया की दखलंदाजी और उसके प्रभावों पर विस्तृत विश्लेषण की संभावनाएं कभी खत्म नहीं होती। अखबार , रेडिओ , टीवी और सोशल मीडिया एक हद तक हमारी दिनचर्या एवं वैचारिक प्रक्रिया को प्रभावित करने पर आमादा है , कई बार वह सफल होते भी नजर आता है। समय का एक दौर ऐसा भी था जब यह माना गया था कि ' तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो ' . निसंदेह समाज को चेतन करने में अखबार रेडिओ और दूरदर्शन ने संजीदा प्रयास किये और उनके बेहतर परिणाम एक पूरी पीढ़ी पर महसूस भी किये गए। अखबार और टीवी ने श्वेत श्याम युग से रंगीन समय में लगभग एक साथ ही प्रवेश किया है। दोनों ही माध्यमों में रंगों के आगमन के साथ कल्पना का विस्तार हुआ और विचारशीलता नेपथ्य में जाती गई। आज दो दशक पूर्व से कही अधिक अखबार और टीवी चैनल है परन्तु अधिकांश की स्थिति वैचारिक दरिद्रता वाली है। अब दोनों ही माध्यम एक ऐसी काल्पनिक दुनिया गढ़ रहे है जिसमे उनके बनाये नायक , खलनायक देश की बड़ी आबादी को अपनी सोंच से प्रभावित करने की क्षमता रखते है। 
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में इटली जन्मे और शरणार्थी बनकर अमेरिका आये ' फ्रैंक कापरा ' ने उस समय के संमाज में फैली विचार शून्यता को अपनी फिल्मों का विषय बनाया। उनकी दर्जन भर उल्लेखनीय फिल्मों में से एक ' मीट जॉन डो '(1941 ) इक्कीसवी सदी में हमारे देखे भोगे अनुभव की भविष्यवाणी करती है। फिल्म का कथानक कुछ इस तरह है - बुलेटिन अखबार के नए मालिक पुराने स्टाफ को निकाल कर नयी भर्ती करना चाहते है। युवा पत्रकार नायिका ( बारबरा स्टान्स्की ) की नौकरी भी खतरे में है।  नौकरी बचाने के लिए नायिका एक जाली पत्र सम्पादक को भेजती है जिसे जॉन डो नाम के युवा ने लिखा है। जॉन डो समाज में भेदभाव और अन्याय के विरोधस्वरूप क्रिसमस की रात टाउन हाल की छत से कूदकर आत्म हत्या करने वाला है। पत्र के छपते  ही सनसनी  फ़ैल जाती है। सब लोग जॉन डो को ढूंढने लगते है।  नायिका एक बेरोजगार युवक ( गेरी कूपर ) को जॉन डो बनाकर मीडिया के सामने पेश कर देती है। जॉन डो अपनी सादगी और सहजता से धीरे धीरे पुरे देश को प्रभावित कर देता है। जॉन डो की वजह से अखबार का सर्कुलेशन बढ़ जाता है। बड़े बड़े राजनेता जॉन डो को अपने हित में उपयोग करने लगते है। अंत में जॉन डो को असलियत समझ आती है। 
जॉन डो की कहानी सतहत्तर  साल पुरानी है परन्तु एक दम ताज़ी लगती है। पिछले एक दशक में हमने मीडिया के दुरूपयोग की दर्जनों कहानियां सुनी है। अफ़सोस हमारे देश में इन कहानियों को कोई फ़िल्मी परदे पर लाने का साहस नहीं करता। वैसे ' मीट जॉन डो ' से प्रेरित होकर टीनू आनंद ने 1989 में अमिताभ बच्चन को लेकर ' में आजाद हूँ ' बनाई थी। इस फिल्म की स्क्रिप्ट जावेद अख्तर ने लिखी थी। मीट जॉन डो ' जहाँ बॉक्स ऑफिस पर सफल होकर कालजयी हो गई वही ' में आजाद हूँ ' अमिताभ के करिश्माई गेटअप और उन्ही की आवाज में गाये ' इतने बाजू इतने सर , गिनले दुश्मन ध्यान से ' के बावजूद  असफल होगई। 
मीट जॉन डो ' सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करती वरन हमें किसी और के हाथ का खिलौना बनने के खिलाफ आगाह भी करती है।फिल्म हमारे सामूहिक  खालीपन की और भी इशारा करती है। हाथ पर हाथ धरे बैठकर मसीहा का इंतजार करना दुनिया की हर नस्ल के चरित्र का हिस्सा बन गया है। मीट जॉन डो ' मनुष्य के इस स्वभाव को शिद्दत से उजागर करती है।  सुचना और रूपकों के अंधड़ में हम अपने आप को किस तरह एकजुट रखते है , हमारा मार्गदर्शन करती है। मीडिया हमारा माध्यम बना रहे , हमारा मालिक नहीं,  यह याद दिलाती है।

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...