Monday, February 12, 2018

वक्त रुकता नहीं कही टिक कर , इसकी आदत भी आदमी सी है

अगर गजल सम्राट जगजीत सिंह आज (8 फरवरी ) जीवित होते तो अपना अठतर वा जन्मदिन मना रहे होते। उनके जाने के सात सालों के समय पर नजर दौड़ाये तो यकीन नहीं होता कि फिल्मों से गजलों का दौर भी उनके साथ ही चला गया है। ऐसा नहीं कि लोगो ने गजल सुनना बंद कर दिया है। गजलों के शौकीन आज भी है और उनके पास बेहतरीन गजलों का खजाना पहले से कही बेहतर स्थिति में है। हिंदी फिल्मों में गजलों का चलन सिनेमा के  आरम्भ से ही रहा है।  समय समय पर गीतों के साथ गजलों का प्रयोग कुन्दनलाल सहगल के जमाने से जारी है।गीतों के साथ गजले लहर की तरह आती जाती रही।  1982 में बी आर चोपड़ा की 'सलमा आगा ,राजबब्बर ' अभिनीत फिल्म ' निकाह ' की गजलों ने पुरे हिन्दुस्तान को सुरूर में डूबा दिया । यह सुरूर ऐसा था जिसने एक पीढ़ी को गजल की रुमानियत से रूबरू  कराया था। बिरले होंगे जिन्होंने उस दौर में ' चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है ' नहीं सुना होगा। ग़ुलाम अली की हिन्दुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक और पाकिस्तानी टोन के ब्लेंड में भीगी आवाज औसत श्रोताओ को पहली बार गजल के संसार में ले गई ।  देश का शायद ही ऐसा कोई घर बचा हो जिसकी चार दीवारी के भीतर उनके कैसेट न बजे हो। ठीक इसी समय जगजीत सिंह अपनी पत्नी चित्रा के साथ अपने शिखर की यात्रा आरम्भ कर रहे थे। ' होठों से छू लो तुम , मेरा गीत अमर कर दो ' (प्रेमगीत ) ये तेरा घर ,ये मेरा घर ( साथ साथ ) लोकप्रियता की पायदान पर छलांगे भर रहे थे। यह वह मुकाम था जहाँ पहले से मौजूद फ़िल्मी गैर फ़िल्मी गजलों को  बड़ा ' एक्सपोज़र ' मिलने वाला था। जगजीत की मखमली आवाज ने गजल को ड्राइंग रूम से निकाल कर वैश्विक मंच दिलाया। होने को ग़ुलाम अली ,बेगम अख्तर ,मेहंदी हसन जैसे चोटी के गजल गायक थे ,नामचीन भी थे , उनका अपना आभा मंडल था। लेकिन जगजीत ने गजलों को उर्दू के कठिन शब्दों से मुक्त कराकर इतना  सरल कर दिया कि वे साधारण संगीत प्रेमी की समझ के  भी दायरे में आगई ।  जगजीत सिंह के जाने के बाद फिल्मों में गजलों का चलन जैसे थम सा गया है। गजले नजर तो आती है परन्तु अखबारों के कोने में। शौकीन अब भी है परन्तु उन्हें अपनी तरंग में  बहा ले जाने वाला शख्स नहीं है। ताज्जुब होता है कि कोई भी स्थापित गायक अब ग़ालिब , मीर ,फैज़ ,इकबाल ,दाग ,दुष्यंत कुमार या निदा फाजली की की अनसुनी गजलों को गाने का साहस क्यों नहीं करता ? 
ओशो के बारे में वरिष्ठ सिने समीक्षक श्री अजात शत्रु  ने टिपण्णी करते हुए लिखा था कि उन्होंने दर्शन और धर्म की क्लिष्ठ बातों को सरल शब्दों में आमजन तक पहुंचा दिया  था । यही बात जगजीत के साथ गजलों के संदर्भ में भी कही जा सकती है। जगजीत ने खुद को तराशा था और उपरवाले ने उन्हें मखमली आवाज की नियामत बख्शी । जगजीत को लगातार सुंनने वाले बता सकते है कि वह सुरमई आवाज आदमी को भीड़ में अकेला कर देती है। एक साथ रूहानी ,रूमानी अनुभव महसूस करना है तो जगजीत को सुनते रहना जरुरी है .. खुद उन्होंने अपनी एक गजल में कहा था ' वक्त रुकता नहीं कही टिक कर , इसकी आदत भी आदमी सी है ....

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